बिआह केर पुरान मजा - वर्ष1990 के पहले के भी क्या दिन थे ! अगहन लगते ही शदीहा (कजहा) आने लगते थे । कोई मिर्जापुर से, कोई सीधी से कोई रीवा से कोई कटनी से और कोई गोरा बजवाही से और कोई त्योंधरी से । कोई अकेले और कोई 2 के साथ मे । उनकी खूब खातिरदारी होती । वे कई दिन टिकते ।उनके लिए अलग मस्त बिस्तर बिछाया जाता ।दोपहर नहाने से पहले नाऊ द्वारा उनकी तेल मालिश की जाती । जिस -जिस के यहां ' लड़का ' होता, अबाह में दूसरों के बैल , गाय , भैंस मांग कर बांध लेते । लड़के के हाथ में घड़ी बांध देते । उसे 5वीं पास होने की बात बता देते । कजहा के पास लड़का आता । वे देखते। अबाह देखते और खेत - खलिहान देखते ,शादी पक्की हो जाती । वरीक्षा दे दिया जाता । फिर तिलक लेकर कोई एक प्रमुख के साथ नाऊ पंडित आते । तिलक में कोपरथार, सुपरफैन कपड़ा, नारियल, सुपाड़ी, हल्दी ,कुछ रुपये और लगन लिखने के लिए कागज आदि होते । पंडित लगन लिखते । लग्नानुसार विवाह के मुख्य कार्यक्रम जैसे माटीमागर, मंडपाच्छादन और मंत्री पूजा होती । घर-परिवार, रिश्तेदारों को ' सुपाड़ी ' दे कर हाथ जोड़कर कर न्योता दिया जा ।बहन बेटियों को बुलाया जाता । द्वारचार के एक दिन पहले शाम 4 बजे बारात गंतव्य की ओर चलती । सब बाराती बनयान परदनी में होते।कुर्ता कंधे पर टांग लेते । दूल्हा जामाजोड़ा पहनता । उसे ऊंची मौर पहनाई जाती।उसे कटार दे दी जाती। अम्मा काजल आंजती । महिलाएं मंगल गीत गातीं--ं अम्मा चला हमारे साथ अकेले हम ना जाबय हो । लाला बाबू क लइ ल्या साथ बराते ओइन जइहयं हो कई बैलगाड़ियों में बराती चलते । कुछ लोग पैदल चलते । डफुला वाले आगे - आगे चलते । अगले दिन दोपहर बारात दुर्जनपुर पहुंचती । यहां बाराती पूड़ी - सब्जी खाते और फिर चल कर 6 बजे गंतव्य गांव पहुंचते और किसी बगीचे को जनवास बनाते । घरात का नाऊ छाता ले कर जनवास जाता । बाराती जल्दी - जल्दी कपड़ा पहनते , डाबर आंवला का तेल लगाते और द्वारचार हेतु कन्या के द्वार पहुंचते । एक तरफ पड़ाका फूटता तो दूसरी ओर दुलदुल घोड़ी नाचती। घराती महिलाएं बरातियों की ओर बतासा - लावा मारतीं और गातीं -- कहना केर बराती रे सब करिऐ करिया। कहना केर घराती रे सब गोरिऐ गोरिया। पश्चात बारात जनवास पहुंचती और दूल्हे को लहकौर भेजा जाता । सभी बच्चे दूल्हे और बलहे के साथ लहकौर खा कर सो जाते । दूल्हे को आंगन में मंडप के नीचे बैठाकर विवाह की विधिवत प्रक्रियाएं पूरी की जातीं। बारातियों की भोज - पंगत बैठती और फूफा रिसाता। मान मनौवल होती । 10-25 रु0 में वह मान जाता । तेंदू के पत्तल -दोने हर बराती के सामने रख कर रोटी , चावल,कढ़ी,इन्दरहर, मुगौड़ा, अचार आदि परोसा जाता और कोई आता और परी -परी भर घी सब के दाल में डाल जाता । और लेने के लिए निवेदन किया जाता। बराती ना - ना करते । अन्दर से ढोलक की थाप पर गारी गाई जाती-- उतरत माघ लगत दिन फागुन किस्न चले ससुरारी कि हां जिउ ------।......। बाद में-- मेछा वाले मीत बोलते काहे नहीं । अरे डाढ़ी वाले मीत बोलते काहे नहीं। अरे टोपी वाले मीत बोलते काहे नहीं।.... अगले दिन बसी होती । खाना जनवास में ही बनता।सायं 'दैजा' का प्रेम पूर्वक कार्यक्रम होता । कुछ सयाने लोग एक - दूसरे का परिचय देते और राम- विवाह की पौराणिकता बताते । भांट कविताएं सुनाते। तीसरे दिन बिदाई होती । कन्या विलाप करती। पिता जी माता जी भाई बंधु सब विलाप करते। कुछ पठौनी बैलगाड़ियों में रखी जाती । इधर बसी के दिन वर पक्ष के घर में रात भर बहलोल होता । बरात घर पहुंचती । परछन और कथा होती । वधू गृह प्रवेश करती । फिर शुरू होता 100 वर्षों का सफल वैवाहिक जीवन !
बिआह केर पुरान मजा - वर्ष1990 के पहले के भी क्या दिन थे ! अगहन लगते ही शदीहा (कजहा) आने लगते थे । कोई मिर्जापुर से, कोई सीधी से कोई रीवा से कोई कटनी से और कोई गोरा बजवाही से और कोई त्योंधरी से । कोई अकेले और कोई 2 के साथ मे । उनकी खूब खातिरदारी होती । वे कई दिन टिकते ।उनके लिए अलग मस्त बिस्तर …